दुनिया में एक अजीब सा ट्रेंड शुरू हो चुका है, जो ना सिर्फ आने वाली पीढ़ी पर असर डाल रहा है, बल्कि हमारे इतिहास में शामिल लोगों के अस्तित्व पर भी सवाल उठा रहा है। दुनिया के जो भी फ्रीडम फाइटर्स हैं, चाहे वो भारत के महात्मा गांधी हों या फिर सोवियत यूनियन के जोसेफ स्टालिन, सभी के अस्तित्व पर, उनके फैसलों पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। इस फेहरिस्त में चीन के जनक माओ ज़ेदोंग भी शामिल हैं।
आज लोग इनके फैसले और मानसिकता पर सवाल उठा रहे हैं लेकिन क्या ये ज़रूरी नहीं कि इनके फैसलों पर राय बनाने से पहले उस दौर के हालात को भी समझने की कोशिश की जाए। क्यों ना ये समझने की कोशिश की जाए कि क्यों इनकी प्रतिमाएं लगाई गईं, इनके नाम से दिवस मनाए गए और क्यों इन धुरंधरों को इतिहास में ये दर्जा दिया गया। दरअसल इन तमाम कवायदों का एकमात्र मकसद आज की और आगे आने वाली पीढियों तक इन शख्सियतों की विचारधारा को पहुंचाना है, दुनिया को उनके योगदान से रूबरू कराना है।
इंसान के व्यक्तित्व में उसकी जड़ें काफी अहमियत रखती हैं, उसका इतिहास और अनुभव ही मिलकर उसका आने वाला भविष्य तय करता है। इतिहास के अनुभव आपके भविष्य के फैसलों को संवार सकते हैं। ऐसे में ऐसी शख्सियतों के योगदान पर सवाल उठाना इतिहास से बेइमानी करने जैसा है। दुनियाभर के फासिस्ट की सोच मिली-जुली सी ही है, माओ को मानने वाले जोसेफ स्टालिन का विरोध कर सकते हैं। अंबेडकर को जो मानते हैं, वो गांधी पर सवाल उठा सकते हैं, लेकिन सोच पर सवाल उठाने से समस्या का समाधान मिलना मुश्किल है। आप व्यवस्था को तो हटा सकते हैं लेकिन विकल्प क्या है ? सवाल उठाना आसान होता है लेकिन समाधान देना नहीं, और इन्हीं सवालों की वजह से आजतक मिडिल ईस्ट आग में झुलस रहा है।
जो डेमोक्रेटिक सोच रखते हैं, co-existence में विश्वास रखते है, वो विकल्प की तलाश करते हैं। सवाल सम्राट अशोक और अकबर पर भी उठ चुके हैं, जो तलवार के बूते देश नहीं बल्कि अपने बूते दिल जीतने का माद्दा रखते थे, ऐसे में सिर्फ सवाल उठाना कहां तक लाजिमी है। दरअसल इतिहास की गवाही ही लक्ष्य तक पहुंचने की कुंजी बन सकती है, अगर इतिहास से सबक नहीं लिया गया तो लक्ष्य हासिल करना मुश्किल हो जाएगा। चाहे वो एक इंसान का व्यक्तित्व हो या फिर देश का भविष्य।