एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, “देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।” सत्यवती ने कहा, “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।” तब पाराशर मुनि बोले, “बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।” इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।” समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।” इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।
एक बार इनके मन में एक ऐसा ग्रन्थ लिखने की इच्छा उत्पन्न हुई जो अद्वितीय हो। इसके लिए उन्होंने ब्रह्मदेव का स्मरण किया। तब ब्रह्मदेव ने उनसे कहा कि “महर्षि! तुम स्वयं नारायण के आठवें अवतार कृष्ण के जीवन के साक्षी हो। अतः उससे अच्छा ग्रन्थ कोई और नहीं हो सकता। जो कुछ भी तुमने देखा है उसे लिपिबद्ध करो।” तब वेदव्यास ने कहा – “हे परमपिता! जिस महाग्रंथ की आप बात कर रहे हैं वो अत्यंत विशाल होगा। इतने बड़े महाकाव्य के लेखन की क्षमता मुझमे नहीं है।” इसपर ब्रह्माजी ने कहा – “तब तुम गौरीनंदन गणेश को प्रसन्न करो। वही तुम्हारे इस महान ग्रन्थ को लिख सकते हैं।” ब्रह्मदेव की आज्ञा पा कर वेदव्यास ने श्रीगणेश का स्मरण और उनसे महाभारत लिखने की प्रार्थना की। तब श्रीगणेश ने कहा – “हे महर्षि! मैं एक महाकाव्य का लेखन तो कर दूँगा किन्तु मेरी एक शर्त है। मैं एक बार लिखना शुरू करूँगा तो इस महाकाव्य को पूरा कर के ही रुकूँगा। अगर बीच में मेरी लेखनी रुक गयी तो मैं उसी समय लिखना बंद कर दूँगा।” वेदव्यास ने सोचा श्रीगणेश की लेखनी तो अत्यंत तीव्र है। इतनी तेज गति से मैं कैसे श्लोकों की रचना कर पाउँगा? तब उन्होंने कहा – “हे गणपति! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है किन्तु मेरी भी एक प्रार्थना है। जब तक आप मेरे कहे गए श्लोकों को पूर्ण रूप से समझ ना लें, आप उसे ना लिखें।” गणेश जी ने वो शर्त मान ली। वेदव्यास ने कथा कहनी आरम्भ की और गणेशजी अपनी तीव्र गति से लिखते रहे। जब भी वेदव्यास को लगता कि गणेश लेखनी में आगे बढ़ रहे हैं, वे श्लोकों को थोड़ा कठिन बना देते जिससे गणेशजी को उसे समझने में थोड़ा समय लगता और उतने समय में वेदव्यास और कई श्लोकों की रचना कर लेते। गणेशजी इतनी तेजी से लिखते कि उनकी लेखनी बार-बार टूट जाती। तब उन्होंने अपने एक दांत को तोड़ कर उसी की लेखनी बना ली। इस प्रकार गणेशजी की अथक लेखनी और वेदव्यास के अथक वाचन से १००००० श्लोकों वाला वो महान ग्रन्थ “महाभारत” पूर्ण हुआ। महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी ने कहा – इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, पंरतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है। साथ ही इसे ये भी कहा कि इस ग्रन्थ को पूर्ण रूप से समझने की क्षमता किसी में नहीं है। जिस ग्रन्थ के श्लोकों को पूर्ण रूप से समझने में स्वयं बुद्धिदाता श्रीगणेश को कुछ घडी का समय लग गया तो अन्य की बात ही क्या? महाभारत की विशालता का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि श्रीमद्भगवद्गीता जैसा सम्पूर्ण ग्रन्थ भी महाभारत का एक छोटा सा भाग है।
वेदव्यास की महानता के बारे में कई जगह बहुत कुछ कहा गया है। वे अपने समय के सबसे बड़े तपस्वी थे। जब विचित्रवीर्य बिना पुत्र के स्वर्ग सिधार गए तो राजसिंहासन के उत्तराधिकारी के लिए सत्यवती ने वेदव्यास को बुला भेजा क्यूंकि भीष्म ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया हुआ था। उन्होंने ही नियोग द्वारा अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बिका से पाण्डु और अम्बिका की दासी पारश्रमि से विदुर की उत्पत्ति की। मारे भय के अम्बिका के नेत्र बंद कर लेने पर और अम्बिका के पीले पड़ जाने पर धृतराष्ट्र नेत्रहीन एवं पाण्डु पीतरोग से ग्रसित थे किन्तु दासी के धैर्य के कारण विदुर हर दृष्टि से सम्पूर्ण हुए। जब उन्हें ये लगा कि आगे चलकर इन दोनों भाइयों के पुत्र के बीच में कलह होने वाला है तब उन्होंने सत्यवती, अम्बिका एवं अम्बालिका को संन्यास ले वन में जाने की सलाह दी ताकि उन्हें ये पारिवारिक कलह ना देखना पड़े। वे गंगापुत्र भीष्म का, और भीष्म उनका बड़ा सम्मान करते थे और वे भीष्म के सलाहकार भी रहे। जब गांधारी के गर्भ से मांस के लोथड़े का प्रसव हुआ तो वेदव्यास ने ही उसे १०० भागों में विभक्त कर उनसे १०० कौरवों का जन्म करवाया। वे त्रिकालदर्शी थे और आने वाले समय में क्या होने वाला है उन्हें पहले से ही ज्ञात था। उन्होंने भीष्म, सत्यवती एवं धृतराष्ट्र को समय समय पर ये बताने का प्रयास किया कि महायुद्ध की सम्भावना है किन्तु होनी होकर ही रही। उन्होंने ही संजय को दिव्यदृष्टि दी ताकि वे धृतराष्ट्र को महाभारत का हाल सुना सकें। श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार होते हुए भी उनका अत्यधिक सम्मान करते थे। जब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीताज्ञान देने के बाद अपना विराट स्वरुप दिखाया तो उस समय अर्जुन एवं देवताओं के अतिरिक्त दिव्यदृष्टि होने के कारण संजय एवं व्यासजी ने भी वो रूप देखा था। उनके तपोबल के आगे देवता भी नतमस्तक होते थे। उनके तपोबल का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि जब अर्जुन और अश्वथामा के ब्रह्मास्त्र जब आपस में टकराने वाले थे तो उन्होंने देवर्षि नारद के साथ अपने तपोबल से उन्हें रोक लिया था। धन्य है भारतवर्ष जहाँ ऐसे महात्मा ने जन्म लिया।