भारत धर्मप्राण देश रहा है यानी इसकी आत्मा धर्म है। सिर्फ हमें अपने व्यवहार का पालन करना है, धर्म का पालन हो जाएगा। कथावाचक किरण कहती हैं कि जो मानवतापूर्ण गुणों से युक्त होगा वो धर्म युक्त होगा। आज लोगों के ज्यादा देर तक चुप रहने से भी हम बेचैन हो रहे हैं। हम धैर्यहीन हो रहे हैं। हमारा व्यवहार हमारे माता-पिता बनाते हैं। ये न शास्त्र सिखा सकते हैं न गुरु बता सकते हैं। कहा गया है कि धर्मो रक्षति रक्षित: यानि धर्म की जो रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। बाकी अंदाजा लगा सकते हैं कि आज हम असुरक्षित क्यों महसूस कर रहे हैं। भक्ति किरण जी सोलह साल से कथावाचक हैं।
..तो संस्कारों की जड़ तक समझ जाएंगे
कोई भी संन्यासी है या नहीं, यह तो उसके संस्कार बता देते हैं और संस्कार कहां से मिले हैं वो देखकर ही पता किया जा सकता है। कहा भी गया है कि जैसा पानी होता है वैसी वाणी होती है और जैसा अन्न खा रहे हैं वैसा मन हो जाता है। दीपो भक्षते ध्वांतम..मतलब दीया अंधेरा खाता तो कालिख छोड़ता है। इसी प्रकार, मनुष्य का वातावरण ही उसका आचरण बता देता है। वागीश स्वरूप ब्रह्मचारी कहते हैं जितनी इंद्रियां नियंत्रित होंगी उतने ही हम संयमित। बस यही धर्म है और ऐसा ही उसका कर्म भी। वागीश स्वरूप ब्रह्मचारी पंजाब से हैं। पहला आश्रम यानी ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं।
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विवेकानंद जैसे तो विरले ही होते हैं
भक्ति किरण जी कहती हैं कि आश्रम एक व्यवस्था है जो धर्म के प्रवाह में हमारी सारथी होती है। संन्यास तक पहुंचने के लिए हमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ से होकर गुजरना पड़ता है और एक गृहस्थ बहुत अच्छा संन्यासी हो सकता है क्योंकि उसने दुनिया को समझा और जाना है। विवेकानंद जी का जीवन एक मिसाल है और उन जैसे विरले ही हो सकते हैं।
भीड़ ज्यादा, गहराई कम
दोनों ही युवाओं की नजर में धर्म में युवा चेहरे हैं और लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन पूरी तरह के शास्त्र का ज्ञान रखने वाले कम हैं। जो हैं यह उनकी साधना है। कहते हैं आज तीन तरह के लोग हैं समाज में। पहले वो जो शास्त्र में क्या लिखा है..यह जानते हैं और दूसरे वो जो उन्हें सुनना चाहते हैं। तीसरे वे जो न जानते हुए भी चीखते हैं। ऐसे में शास्त्र का ज्ञान रखने वालों के मौन से धर्म का स्वरूप बिगड़ रहा है।