Monday , April 29 2024

जटिल रोग भी ठीक कर देता है यज्ञ का धुआं

375_1यज्ञ केवल आध्यात्मिक प्रक्रिया ही नहीं, वह व्यक्ति की सुख-समृद्धि का भौतिक विधान भी है। ब्रह्मा जी ने भी कहा है कि यज्ञ हर कामना को पूर्ण करने में सहायक है। जो लोग यज्ञ को गोइठा में घी सुखाने का सतही कर्मकांड मानते हैं, उन लोगों को हमारी यज्ञसंहिता जरूर पढ़नी चाहिए। चरक और सुश्रुत जैसे प्राचीन वैद्यों के लिखे पढ़े को जरूर पढ़ना चाहिए। जीवन में व्यकथ्त की नित्य यज्ञेपसेवी होना चाहिए। विज्ञान भी ध्वनि, ताप और वायु की बात करता है। अपने देश में यज्ञ चिकित्सा और वायु का अपना पूरा विज्ञान है। इसके लिए अगर अग्निपुराण है तो वायु पुराण भी है। अग्नि और वायु को लेकर प्राचीन काल से ही शोध होते रहे हैं और वे मानव जीवन के लिए किसी अमृत से कम लाभकारी नहीं हैं। प्राचीन काल में रोग फैलने पर बड़े-बड़े यज्ञ किए जाते थे जिन्हें भेषज्य यज्ञ कहा जाता था और इसका व्यापक प्रभाव भी होता था। गोपथ ब्राह्मण में इस बात का उल्लेख है कि जो चातुर्मास्य यज्ञ हैं, वे भैषज्य यज्ञ कहलाते हैं क्योंकि वे रोगों को दूर करने के लिए होते हैं।
 ‘भैषज्ययज्ञा वा एते,यच्चातुमास्यानि। तस्मादृतु संधिषु प्रयुज्यन्ते, ऋतुसंधिषु वै व्याधिर्जायते।’  अथर्ववेद तो यह कहते हुए नहीं थकता कि यज्ञाग्नि औषधि का काम करती है। ‘अग्निष्कृणोतु भेषजम।’ यज्ञ से व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास होता है। यजुर्वेद की यह ऋचा तो कमोवेश इसी बात का उद्घोष करती है। 
”प्राणश्च में अपानश्च में व्यानश्च में सुश्च में
चित्तं च मे आधीतं च मे वाकश्च मे मनश्च मे
चक्षुश्च मे श्रोत्रं च मे दक्षश्च मे बलं च में यज्ञोन कल्पन्ताम।” 
 अर्थात‌ मेरा प्राण मेरा अपान, मेरा व्यान, मेरे अन्य प्राण, मेरा चित्त, मेरे विचार, मेरी वाणी, मेरा मन,मेरे नेत्र, मेरे कान,मेरी दक्षता और मेरा बल यज्ञ से संपन्न हों। यज्ञ की ऊर्जा से युक्त होकर अधिक प्रखर और प्रभावी हों।  यजुर्वेद का ही एक श्लोक तो यह भी कहता है कि मन,वाणी और बुद्धि की उन्नति के लिए यज्ञ और यज्ञपति की उपासना जरूरी  है।
देव सवित: प्रसु व यज्ञं प्रसु व यज्ञपतिं भगाय। दिव्यो गंधर्व: केतपू: केतं पुनातु वाचस्पतिर्वाचं न: स्वदतु। चरक सूत्र तो इसके आगे की बात कहता है। उसके मुताबिक रसायन महौषध, मृत्युंजय आदि जप-तप, ब्रह्मचर्यादि एवं योग की सिद्धियों से अकाल मृत्यु भी टल जाती है। ‘ रसायनतपो जापयोगसिद्धैर्महात्मभि:। कालमृत्युरपि प्राज्ञैर्जीयते नालसैर्नरै:। ’ अथर्ववेद में तो यहां तक लिखा है कि जिसके शरीर में गूगल की गंध पहुंचती है, उसकी राजयक्ष्मा आर्थात क्षय रोग की पीड़ा नहीं होती। न तं यक्ष्मा अरुंधते नैनं शपथो अश्नुते। यं भेषजस्य गुग्गलो: सुरभिर्गंधो अश्नुते। ऋग्वेद में भी यज्ञाग्नि को रोगों को नष्ट करने वाला कहा गया है। ‘कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे। देवममीवचातनम। ’
ऋग्वेद में कहा गया है कि श्वास-निश्वास नामक दो वायु चलती हैं। एक बाहर के वायुमंडल से फेफड़ों के रक्त समुद्र तक  और दूसरी फेफड़ों से बाहर बाहर के वायु मंडल तक। इनमें से पहली रोगी को रोग निवारक बल दे। दूसरी रक्त में जो दोष हैं, उन्हें अपने साथ बाहर ले आए। हे वायु तू अपने साथ औषधि ला। हे वायु जो रक्त में मल है, उसे बाहर निकाल। तू सब रोगों की दवा है। तू देवों का दूत होकर विचरता है।
 चरक संहिता में तो यज्ञ के धूम्र के पान का प्रमुखता से वर्णन किया गया है। चरक के जो दो सूत्र इस बावत हैं, वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। पहला- ‘आत्मवान धूमपो भवेत।’ अर्थात आत्मवान बनने के लिए धूम्रपान करें। और दूसरा ‘पीतपात्रे धमे प्रशांत लभते जरास्य।’ मतलब धूम्रपान से मनुष्य के शरीर में व्याप्त रोगों का शमन होता है। चरक का आशय बीड़ी, सिगरेट, गांजा, तंबाकू या चरस के सेवन से नहीं है। वे यज्ञ के धुएं से निकलने वाली धूम्र की बात कर रहे हैं। चरक और सुश्रुत जैसे प्राचीन आयुर्विज्ञानी मानते हैं कि यज्ञ के धुएं के अनुसेवन से सिरदर्द, पीनस, आधासीसी, कान और नेत्र के शूल,हिचकी, दमा गलघोंटू, दांतों की दुर्बलता, नेत्रों के दोषजन्य स्राव,नाक की दुर्गंध,कंडु, कृमि,केशों का पीलापन,व्यामोह और निद्रा आदि दोषों का उपशमन होता है। बाल, कपाल, इंद्रियों तथा स्वर का बल बढ़ता है। यज्ञ धूम का सेवन करने वाले को वात-कफजन्य रोग नहीं होते। दोनों ही आयुर्विज्ञानी मानते हैं कि वात और कफ का प्रयोग आठ स्थितियों में होता है। स्नान के बाद, भोजन के बाद, वमन के बाद, छींक आने के बाद, दातौन के बाद, नस्य लेने के बाद, अंजन लगवाने के बाद और साेकर उठने के बाद। सुश्रुत लिखते हैं कि ‘यदाचोलश्च, कंठश्च श्रश्च लघुतां व्रजेत। कफश्च तनुतां प्राप्त: सुपीतं धूममादिशेत। उचित मात्रा में किए गए धूम्रपान से छाती, कंठ और सिर हलका हो जाता है। कफ पतला हो जाता है।
यज्ञ एक समग्र उपचार प्रक्रिया है। उसके धुएं से जटिलतम रोगों  का भी इलाज संभव है। ऋषि-मनीषियों ने निरंतर यज्ञ सेवी होने की सलाह दी है। हवन समिधा के रूप में अगर, तगर, देवदारु, चंदन, रक्तचंदन,गूग्गल, जायफल, लौंग, चिरायता और असगंध का समान मात्रा में उपयोग किया जाता है। ये महज दस हवन सामग्री नहीं, बल्कि औषधियां हैं और सभी प्रकार के रोगों के उपचार में सहायक हैं। विशेष रोग में अगर उससे संबंधित विशेष औषधियां मिला दी जाएं तो उसका चमत्कारी परिणाम होता है। जैसे साधारण बुखार में उपरोक्त दस वनौषधियों के साथ तुलसी की लकड़ी, तुलसी के बीज, चिरायता और करंजे की गिरी का हवन लाभप्रद रहता है। विषम ज्वर में पाढ़ की जड़, नागरमोथा, लालचंदन,नीम की गुठली और अपामार्ग समान मात्रा में मिलाकर हवन किया जाए तो विषम ज्वर का शमन होता है।  जीर्ण ज्वर में केसर,काकसिंगी, नेत्रवाला, त्रायमाण,खिरेंटी, कूट और पोकह मूल से हवन किया जाना चाहिए जबकि शीत ज्वर में नागरमोथा, कुटकी, नीम की छाल, गिलोय,कुड़े की छाल, करंजा और नीम के फूल से हवन करना लाभकारी होता है।  उष्ण ज्वर में  इंद्रजौ,नगरमोथा,नीम की गुठली, नेत्रवाला, त्रायमाण, काला जीरा, चौलाई की जड़ और बड़ी  इलायची का हवन फायदेमंद रहता है। खांसी अधिक सता रही हो तो मुलहठी,पान, हल्दी, अनार, कटेरी,बहेड़ा, उन्नाव, अंजीर की छाल, अड़ूसा, काकड़ा सिंगी , इलायची और कुलंजन को मिलाकर हवन करना उचित रहता है। दस्त में सफेद जीरा,दालचीनी, अजमोद,बेलगिरी, अतीस, चित्रक, छुहारा, सोंठ, चव्य, इसबगोल, मोचरस, तालमखाना और मौलश्री की छाल से हवन किया जाना चाहिए। अपच की स्थिति में काला जीरा, सफेद जीरा, नागकेसर, तालीशपत्र, पुदीना की जड़, हरड़ और अमलतास की छाल से हवन करना मुफीद रहता है। वमन के रोगी के इलाज के लिए वायविडंग, पीपल, पीपरामूल, ढाक के बीज, निशोथ,आम की गुठली, प्रयंगु और नीबू की जड़ से हवन किया जाना चाहिए। श्वांस रोग को ठीक करने के लिए पोस्ते के डोंडे, बबूल के बक्कल, धाय के फूल, मालकंगनी और बड़ी इलायची के समान मिश्रण का हवन उपयुक्त रहता है। हैजा के इलाज के लिए धानिया, कासनी, सौंफ, कपूर, चित्रक से हवन किया जाना चाहिए।  दांत के रोगों के इलाज के लिए शीतलचीनी, अकरकरा,बबूल की छाल, इलायची और चमेली की जड़ से हवन करना चाहिए।बंध्यत्व निवारण के लिए शिवलंगी के बीज,जटामांसी, कूट, शिलाजीत, नागरमोथा,पीपल के वृक्ष के पके फल, गूलर के पके फल, बड़ वृक्ष के पके फल, भटकटैया से हवन लाभाकारी होता है।  क्षय रोग निवारण  के लिए मकोय,जटामांसी, गिलोय, जावित्री, जीवंती,आंवला और शालपर्णी से हवन किया जाना चाहिए। दुनिया में कोई ऐसा रोग नहीं है जिसका यज्ञ के जरिए स्थायी और टिकाऊ इलाज न हो सके। इसके लिए रोगी का मुख बस हवन कुंड की ओर होना चाहिए जिससे कि मुख और नाक द्वारा यज्ञ धूम्र उसके फेफड़ों तक पहुंचता रहे। यज्ञ की वायु का शरीर से स्पर्श भी रोगी के इलाज में काफी प्रभाव डालता है।
                                                                                                                                           ————— सियाराम  पांडेय ‘शांत’
E-Paper

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com