भारत की न्याय व्यवस्था पर एक बार फिर बड़ा सवाल खड़ा हुआ है। उत्तर प्रदेश की कौशांबी जेल से हाल ही में 103 वर्षीय लखन नामक बुजुर्ग रिहा हुए हैं। लखन को 1977 में हत्या के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था। इसके बाद 1982 में उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई। लेकिन लखन 43 साल जेल में बंद रहे और अब, जब वह 103 वर्ष के हो चुके हैं, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया है। इस घटना ने न केवल न्याय प्रणाली की धीमी गति, बल्कि गरीबों के लिए न्याय की पहुंच पर भी गहरा प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है।
लखन ने 1982 में ही हाईकोर्ट में अपील दायर कर दी थी। लेकिन इस अपील को निर्णायक मुकाम तक पहुंचने में पूरे 43 साल लग गए। इस दौरान वह जेल में ही रहे। सोचिए, एक निर्दोष व्यक्ति अपनी पूरी ज़िंदगी सलाखों के पीछे गुज़ार देता है, और जब न्याय मिलता है, तब शरीर जवाब देने लगता है। यह न्याय है या अन्याय — यह सवाल पूरे देश में चर्चा का विषय बन गया है।
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लखन की कहानी कोई इकलौती नहीं है। हमारे देश में न्यायिक प्रक्रिया इतनी धीमी और खर्चीली है कि आम आदमी के लिए यह किसी पहाड़ से कम नहीं। कोर्ट में मुकदमा लड़ने के लिए केवल सच्चाई काफी नहीं, पैसे और समय की भी उतनी ही ज़रूरत होती है। लखन जैसे हजारों लोग आज भी न्याय के इंतज़ार में जेलों में हैं, जो या तो गलत आरोपों के शिकार हुए या जिनकी सुनवाई समय पर नहीं हो सकी।
देश की अदालतें आम आदमी के लिए अंतिम उम्मीद होती हैं, लेकिन अगर वहां पहुंचना ही इतना मुश्किल हो जाए, तो न्याय अपने आप में एक विलासिता बन जाता है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में मुकदमा लड़ना गरीब आदमी के लिए लगभग असंभव है। बड़े-बड़े वकीलों की फीस, अदालत में तारीख़ों की लंबी कतार और सालों का इंतज़ार — यही है आज का भारतीय न्याय तंत्र।
हमारे देश के नीति-निर्माताओं, न्यायपालिका और सरकार को अब यह समझना होगा कि इंसाफ का मतलब केवल सजा या बरी करना नहीं होता — इंसाफ का मतलब यह भी होता है कि वह समय पर मिले। अन्यथा यह सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया बनकर रह जाती है, इंसाफ नहीं। लखन की ज़िंदगी इसी सच्चाई का जीता-जागता उदाहरण है।
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