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अब गाय की रक्षा कौन करेगा?

250px-Cows-mathura2प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरसे बाद ही सही, गौ रक्षकों की भूमिका पर सवाल उठाया है।  80 प्रतिशत गौरक्षकों को गलत धंधे से जुड़ा बताया है। उन्होंने राज्य सरकारों से कहा है कि अपने राज्य में गौरक्षक होने का दावा करने वाले लोगों का डोजियर बनवाएं। अपने इस बयान से वे मुसलमानों और दलितों के वोट को खुद से कितना जोड़ पाएंगे, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उनके इस बयान से अपने जरूर उनसे बिदक गए हैं। हिंदू महासभा के चक्रपाणि ने तो प्रधानमंत्री की इस प्रतिक्रिया पर सख्त नाराजगी जाहिर की है। साथ ही यह भी चेतावनी दी है कि अगर देश में कोई गौरक्षक बंद किया जाता है तो हिंदू महासभा कड़ा आंदोलन करेगी। संघ परिवार भी शायद ही उनके इस बयान को पचा पाए तो क्या मोदी अंतत: अटल बिहारी वाजपेयी के नक्शेकदम पर आगे बढ़ रहे हैं? गौरक्षा अगर गोरखधंधा है क्योंकि बकौल प्रधानमंत्री इस पुनीत काम में अराजक तत्व भी शामिल हो जाते हैं तो इस गोरखधंधे को रोकेगा कौन? गाय और उसके वंश की रक्षा कौन करेगा?
 गौहत्या पर आया प्रधानमंत्री का बयान साधु-संतों को भी रास नहीं आया है। विपक्ष को भी लगे हाथ इस बहाने प्रधानमंत्री को घेरने का मौका मिल गया है। विपक्ष का आरोप है कि प्रधानमंत्री ने अगर पहले ही इस मुद्दे पर अपनी बात कह दी होती तो देश के कई हिस्सों में गौहत्या के शक में दलित और मुस्लिम मारे न जाते। विपक्ष के आरोप को बेजां नहीं कहा जा सकता लेकिन इस बहाने इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि देश में बड़े पैमाने पर गौवंश का कत्ल किया जा रहा है। यह सिलसिला लंबे अरसे से चल रहा है। किसी भी सरकार ने गोहत्या पर रोकथाम का सम्यक प्रयास नहीं किया है। इस देश को भाजपा से थोड़ी उम्मीद भी थी लेकिन उन्होंने जिस तरह से गौहत्या से जुड़े लोगों का बचाव किया है और सारा ठीकरा गौरक्षकों के ही सिर पर फोड़ दिया है,उससे लोगों का भाजपा के प्रति मोहभंग होना स्वाभाविक है। सवाल उठता है कि क्या देश में गायों का वध नहीं हो रहा है और अगर ऐसा है तो प्रधानमंत्री को गौहत्यारों का बचाव क्यों करना पड़ा?
 प्रधानमंत्री को ऐसा क्यों लगता है कि बूचड़खानों में जितने गौवंश की हत्या होती है, उससे अधिक गायें प्लास्टिक खाने से होती है। क्या यह समग्र सत्य है? उन्होंने गौरक्षकों से अपनी असलियत प्रमाणित करने के लिए प्लास्टिक पर रोक लगाने की बात की है। वे गायों को प्लास्टिक न खानें दें। सुझाव बुरा नहीं है लेकिन सवाल यह है कि सरकार किसके हाथ में हैं। एक ओर तो प्रधानमंत्री को यह बात बुरी लगती है कि किसी भी हादसे के लिए उन्हीं से जवाब क्यों मांगा जा रहा है। जिम्मेदार तंत्र से इसी तरह के सवाल क्यों नहीं पूछे जाते? प्रधानमंत्री इस नियम के अपवाद कैसे हो सकते हैं? प्लास्टिक पर रोक लगाने का काम केंद्र सरकार क्यों नहीं  करती। राज्य सरकारें क्यों नहीं करती। लोकसभा चुनाव के दौरान गौहत्या रोकने का संकल्प व्यक्त करने वाले नरेंद्र मोदी को यूटर्न लेने की दरअसल जरूरत क्यों पड़ गई। सुमेरु पीठाधीश्वर नरेंद्र गिरि ने जानना चाहा है कि क्या दिल्ली के पंचसितारा होटलों में गौमांस का परोसा जाना बंद हो गया है। क्या प्रधानमंत्री को यह सब दिखता ही नहीं। क्या प्रधानमंत्री बूचड़खाने के मालिकों के हाथ बिक गए हैं। इन सवालों के जवाब बेहद जरूरी हैं।
गौहत्या का बड़ा नेटवर्क है और इससे जुड़े लोगों की मदद कहीं न कहीं इस देश का कानून भी करता है। एक ही अपराध के लिए अलग-अलग कानून अंतत: क्या दर्शाते हैं, इस सवाल का जवाब तो इस देश को मिलना ही चाहिए। हाल ही में राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने चुटकी ली थी कि गौमाता दूध देती हैं, वोट नहीं और प्रधानमंत्री के बयान के बाद वे सरेआम कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री को उनकी बात समझ में आ गई है तो क्या गौहत्या के संदर्भ में नरेंद्र मोदी और लालू प्रसाद यादव का आईक्यू एक जैसा है? केरल ,पश्चिम बंगाल, उत्तर भारत के राज्यों त्रिपुरा, मेघालय,अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड,मिजोरम और सिक्किम में गोहत्या पर कोई प्रतिबंध नहीं है। मणिपुर के राजा के पक्ष में गौवध के खिलाफ फैसला भी आया था लेकिन इसके बाद भी यहां बड़े पैमाने पर गौमांस की खपत और आपूर्ति होती है। पश्चिम बंगाल में तो देश के कई राज्यों से ट्रकों में भरकर गौवंश को भेजा जाता है और संबंधित राज्यों की सरकारें आंख मूंदे और  कानों में तेल डाले बैठी हैं।
आंध्रप्रदेश, असम और बिहार में गौहत्या पर प्रतिबंध तो हैं लेकिन बूढ़े और बीमार गौवंश को मेडिकल सर्टिफिकेट के आधार पर काटा जा सकता है। चंडीगढ़ में तो गौवंश ही नहीं, भैंसों के मांस के संग्रहण, उसके परोसने, खाने पर पूरी तरह प्रतिबंध है। छत्तीसगढ़ में भी कमोवेश यही हालात हैं। यहां गौवंश की हत्या करने, उसके मांस को खाने या उसका परिवहन करते पाये जाने पर सात साल की जेल और 50 हजार रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। गुजरात में भी सजा और जुर्माना छत्तीसगढ़  जैसा ही है।  हरियाणा में तीन से दस साल तक की सजा और एक लाख रुपये तक जुर्माना, हिमाचल प्रदेश में पांच साल और जम्मू-कश्मीर में दस साल,झारखंड में दस साल और दस हजार अर्थदंड, कर्नाटक में सात साल और एक लाख का अर्थदंड,मध्यप्रदेश में सात साल की कैद का प्राविधान है। गौवध पर ओड़िसा में अगर 2 साल और एक हजार रुपये जुर्माना तय है तो  पंजाब में अगर सरकार अनुमति दे तो बीफ की सप्लाई हो सकती है। राजस्थान में दस साल की जेल और दस हजार जुर्माना, तमिलनाडु में तीन साल की कैद और एक हजार जुर्माना तथा उत्तर प्रदेश में सात साल की कैद और 10 हजार रुपये जुर्माने का प्रावधान है। अपने घर में गौमांस रखने के संदेह में पिछले दिनों उत्तेजित लोगों ने मोहम्मद इकलाख की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी और इस प्रकरण को राजनीतिक हवा देकर  बिहार विधानसभा के चुनाव को प्रभावित करने की हर मुमकिन कोशिश भी हुई थी। उस समय लालू प्रसाद यादव तक ने बीफ खाने की बात की थी। उस दौरान भाजपा नेता संगीत सोम पर भी  बीफ फैक्ट्री चलाने के आरोप लगे थे।  आजम खान की भूमिका पर भी सवाल उठे थे। अब सपा विधायक आबिद रजा सपा के एक बड़े नेता पर गौवध से जुड़ी जमात का साथ देने का आरोप लगाया है। सवाल इस बात का हैकि इस देश में गाय की जान की कीमत क्या है?  एक ही अपराध के लिए अलग-अलग राज्यों में सजा और जुर्माने में अंतर सरकारों की संवेदनशीलता पर पहले ही सवाल खड़ा करता रहा है।
 सच्चाई तो यह है कि देश में गौमांस का कारोबार प्रतिदिन करोड़ों- अरबों का है। चमड़े से जो आमदनी होती है सो अलग। एक ओर तो कहा जाता है कि गाय हमारी मां है और दूसरी ओर उन्हें खुलेआम बूचड़खानों में तड़पा-तड़पाकर मौत के घाट उतार जाता है। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। और इसके बाद भी नेता अपने को सबसे बड़ा गौरक्षक कहते हैं। गौरक्षा की हिमायत करने वाले अचानक बूचड़खानों की पक्षधरता करने लगते हैं, ऐसे में गायों का भगवान ही मालिक है। गायों की रक्षा के नाम पर किसी भी जाति-धर्म के व्यक्ति की हत्या नहीं की जानी चाहिए। कानून को अपने हाथ में लेने का अधिकार किसी को भी नहीं है। मानवाधिकार की सुरक्षा होनी चाहिए लेकिन गायों और उसकी वंश शृंखला को आखिर कौन बचाएगा, यह भी तो सुनिश्चित किया जाना चाहिए। गाय को वोट का विषय बनाया जा रहा है। यही वजह है कि ‘गाव: सर्वसुखप्रदा:’ कहने वाले, गाय के शरीर में सभी देवों, तीर्थों, सागरों और नदियों का निवास बताने वाले देश को अचानक ऐसा क्या हो गया कि वह गायों का दुश्मन बन बैठा। सिंथेटिक और मिलावटी दूध उसे पसंद है लेकिन गाय कोई पालना नहीं चाहता। कबीर की यह उलटवासी ‘बरसे कंबल भीगै पानी’ आखिर कब तक चलेगी। यह देश अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी आखिर कब तक मारता रहेगा?
                                                                                                                    —–  सियाराम पांडेय ‘शांत’
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