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राम भरोसे पुराने पुल

38656-adnmueodtw-1470215466जीवन में पुल का बड़ा योगदान है। पुल बड़ा है या छोटा, यह बहुत मायने नहीं रखता। पुल के अभाव में जीवन कितना कठिन होता है, यह मायने रखता है। पुल हो तो चिंता नहीं रहती। नदी-नालों को पार करने का खटका नहीं रहता लेकिन पुल न हो तो समस्या भयावह हो जाती है। देश में हजारों ऐसे गांव हैं जो पुल निर्माण की मांग कर रहे हैं। बरसात के दिनों में  तो ये गांव बहुधा टापू बन जाते हैं। शहर से इनके संपर्क टूट जाता है। राहत भी बमुश्किल ही यहां पहुंचती है। कहीं मानव निर्मित बांस के पुलों पर जान जोखिम में डालकर बच्चे स्कूल जाते हैं, लोग बाजार जाते हैं तो कहीं जर्जर नाव ही सहारा है। कई गांवों के बीच एक नाव। उसकी मरम्मत भी राम भरोसे। देश में हर साल नदियों में नावें पलटती रहती हैं और नदी में डूबकर सैकड़ों जाने जाती रहती हैं।  सेतु निर्माण की राजनीतिक वादे तो होते हैं लेकिन चुनावी मौसम में। इसके बाद किसी को सुध नहीं रहती कि कुछ कहा भी गया था अथवा नहीं।  जहां पुल नहीं हैं, वहां तो समस्या है ही, लेकिन जहां पुल हैं भी वे या तो मरम्मत के अभाव में जर्जर हुए जा रहे हैं या फिर कालबाधित हो चुके हैं। इतने पुराने पड़ चुके हैं कि उन पर किसी भी तरह का परिवहन अतीव घातक है। सरकारों का ध्यान बस टोल टैक्स की वसूली तक ही केंद्रित होता है।
सेतु जोड़ते हैं सीमाओं को, राज्यों को, देशों को और उससे भी अधिक दिलों को। वे एक नई संस्कृति को जन्म देते हैं। विचार श्रृंखला को विस्तार देते हैं और साथ ही लोक जीवन में सुविधा का संचार करते हैं। पुल का बनना विश्व मानवता के लिए एक बड़ी उपलब्धि है और पुल का टूटना सबसे बड़ी आपदा। इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। देश में सैकड़ों पुल सौ साल से भी अधिक पुराने हैं या यूं कहें कि वे अपनी जिंदगी पूरी कर चुके हैं। हर पुल की अपनी आयु होती है और यह आयु पुल के निर्माण के वक्त ही तय हो जाती है। राजनीतिक दलों का यह तर्क हो सकता है कि बहुतेरे पुल अंग्रेजों के जमाने में बने हैं। उनकी आयु हम कैसे तय कर सकते हैं? सवाल उठता है कि जो पुल आजाद भारत में बने हैं। उनकी आयु तो भारत सरकार या संबंधित राज्य सरकार को पता होगा। जब आपको अपने बनाए पुल की मियाद पता है तो अंग्रेजों के बनाए पुल की उम्र उससे दो-चार साल अधिक या कम हो सकती है, यह सामान्य सा फलसफा भी अगर हमें समझ नहीं आता तो इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है।  महाराष्ट्र में सावित्री नदी पर अंग्रेजों के जमाने में बना 88 साल पुराना पुल टूट गया और उसमें कई वाहन समा गए। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 22 लोग नदी की लहरों में समा गए। यह हादसा सामान्य नहीं है। महाराष्ट्र सरकार ने कुछ माह पहले ही इस पुल का निरीक्षण किया था और इस बात का दावा किया था कि पुल बेहद मजबूत है और शायद यही वजह है  कि गोवा- मुबई हाइवे के बगल में नया पुल बनाए जाने के बाद भी पुराने पुल पर सड़क परिवहन को रोका नहीं गया था। शायद सरकार को किसी बड़े हादसे का इंतजार था। यह अंग्रेजों द्वारा निर्मित पहला पुल है जो नदी की लहरों के थपेड़े बर्दाश्त कर पाने में विफल रहा है।  इस हादसे ने पुलों के प्रति सरकारों की अन्यमनस्कता की पोल खोल दी है। मुंबई गोवा हाइवे ब्रिज का टूटना सामान्य घटना नहीं है। यह पहली और अंतिम घटना भी नहीं है। नदी-नालों पर बने पुल अक्सर मानव जीवन को चुनौती देते रहे हैं।
 वर्ष 2001 में  केरल में कोझिकोड के निकट कादलुंदी रेलवे ब्रिज टूट गया था। इस हादसे में 57 लोग मारे गए थे और सौ से  अधिक लोग घायल हो गए थे। घटना की वजह बना था भारी मानसून और नदी का तेज प्रवाह।  उत्तर भारत में धावे नदी पर बना रफीगंज  रेलवे ब्रिज नक्सिलयों ने उड़ा दिया था। इसके चलते 10 सिसतंबर, 2002 को राजधानी एक्सप्रेस डिरेल्ड हो गई थी।  हैदराबाद के नजदीक वैलिगोंडा  में बाढ़ के चलते  29 अक्टूबर,2005 को वैलिगोंडा रेल पुल ध्वस्त हो गया था। इस हादसे में 114 लोगों की सांसें थम गई थीं। दो सैकड़ा लोग गंभीर रूप से आहत हो गए थे।  सितंबर 2007 में भागलपुर में 150 साल पुराना रेलवे पुल क्षतिग्रस्त हो गया था और इसके चलते हावड़ा-जमालपुर सुपरफास्ट एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी।  इस हादसे में 30 लोगों की जीवनलीला खत्म हो गई थी। रेलवे पुलों के क्षतिग्रस्त होने और इस क्रम में हताहत होने वालों की फेहरिश्त बहुत लंबी है लेकिन कभी भी मामले को गंभीरता से नहीं लिया गया। हर हादसे के बाद जांच समिति बैठाई गई लकिन जांच के नतीजे  ढाक के तीन पात रहे। अगर पूर्व के हादसों से भी सरकार ने सबक लिया होता तो भी सावित्री नदी के पुल पर हुई घटना से बचा जा सकता था। पुराने पुलों पर अविलंब परिवहन रोके जाने की जरूरत है। जैसी कि खबर है कि मुंबई-गोवा हाइवे पुल के ध्वस्त होने के बाद सरकार ने नदियों पर बने सभी पुराने पुलों का नए सिरे से सर्वे कराने की बात की है, यह बेहद सराहनीय प्रयास है लेकिन उसी तरह का है कि का वर्षा जब कृषि सुखाने। हादसों के बाद चेतने से बेहतर तो यह है कि कुछ ऐसे प्रयास किए जाएं जिससे कि हादसे हो ही नहीं।
bridge सरकार का ध्यान अंग्रेजों के जमाने में बने कोलकाता के हावड़ा ब्रिज और वाराणसी के मालवीय सेतु की जर्जरता पर नहीं है। ये दोनों ही पुल अपनी अवधि पार कर चुके हैं लेकिन इन पर भारी ट्रैफिक के दबाव को कम करने की दिशा में संभवत: कोई प्रयास नहीं किया गया है। इलाहाबाद का नैनी  ब्रिज तो वर्ष 1865 में बना है। वह भी अपनी आयु पूरा कर चुका है लेकिन इस पर रेल परिवहन धड़ल्ले से हो रहा है। गंगा बैराज कानपुर भी कम पुराना नहीं है। बिहार का महात्मा गांधी सेतु,मुंगेर रेल कम रोड ब्रिज, नेहरू सेतु, राजेंद्र सेतु और कोसी सेतु की हालत भी बहुत मुफीद नहीं है। जम्मू-कश्मीर का चेनाब पुल, आंध्र प्रदेश का प्रकाश बैराज, गोदावरी पुल, गुजरात का एलिस पुल, सुदामा सेतु,गोल्डेन ब्रिज, महाराष्ट्र के बांद्रा -बर्ली सी लिंक,छत्रपति शिवाजी महाराज ब्रिज नासिक, ओड़िसा में महानदी पर बने तीनों पुल किस हालात में हैं, कितने पुराने हैं,यह किसी से छिपा नहीं है। पुलों की सुरक्षा देश की सुरक्षा है और जिन पुलों पर सड़क और रेल यातायात की अधिकता है, उनकी सुरक्षा तो वक्त की पहली जरूरत है। मानसून का बिगड़ना कोई नई बात नहीं है लेकिन नदियों का भारी जलप्रवाह पुलों को नुकसान न पहुंचाए, यह सुनिश्चित तभी हो सकेगा जब पुलों की मरम्मत का दायित्व पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा से हो। बरसात और बाढ़ के दिनों में परिवहन जारी रहे या नहीं और अगर परिवहन को जारी रखना बेहद जरूरी हो तो उसका स्वरूप और सीमा क्या हो, यह भी तय किया जाना चाहिए। काश, केंद्र और राज्य सरकारें जन हित में पुलों के नवनिर्माण और मरम्मत के मोर्चे पर ईमानदार प्रयास कर सकें। अंग्रेजों के बनाए पुल मजबूत हो सकते हैं तो देखना होगा कि आजाद भारत में बने पुलों के जल्दी-जल्दी ध्वस्त होने के मूल में कहीं भ्रष्टाचार तो नहीं। विकास की दीवार में लगे इस दीमक का विनाश किए बगैर देश का सम्यक उत्थान संभव नहीं है।
                                                                                                               —- सियाराम पांडेय ‘शांत’
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