
सियाराम पांडेय ‘शांत ’
सुलह की खिचड़ी पकी नहीं है। मतभेद की लकड़ी पर धुआं तो उठता है मगर आंच नहीं लगती। खिचड़ी क्या पकेगी और जब तक पकेगी तब तक सपा का काफी नुकसान हो चुका होगा। मुलायम भी रोए, शिवपाल भी रोए और अखिलेश भी रोए। अखिलेश ने भी पूछा कि आखिर उनका कसूर क्या है और शिवपाल का भी यही सवाल था। भावुकता के ट्रंप कार्ड दोनों ही ओर से खेले गए। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि मुझे क्या पड़ी है जो मैं 25 साल पुरानी पार्टी को तोड़ूंगा और शिवपाल ने कहा कि मुझे गंगा जल और मेरे बच्चों की कसम जो अखिलेश ने यह न कहा होगा कि मैं नई पार्टी बनाकर चुनाव लड़ लूंगा। अखिलेश को झूठा ठहराने के लिए तो शिवपाल ने माइक तक उनके हाथ से छीन लिया। अखिलेश समर्थकों को भी कहा कि सपा में गुंडई नहीं चलेगी। पार्टी में रहना है तो अनुशासन में रहना होगा। चार माह से ढके-पुते स्वरूप में चली आ रही रार सार्वजनिक हो गई। मुलायम सिंह यादव ने तो अपने बेटे से ज्यादा भाई को तरजीह दी। उन्हें लग रहा है कि बेटा बगावत पर उतर आया है। सो उसे उसकी औकात बता दी। सुना दिया कि गुंडों, दलालों, व्यभिचारियों का साथ मत दो। उनकी बातों से अखिलेश को धक्का भी लगा। पिता के ऊपर से एक आज्ञाकारी पुत्र का विश्वास टूटा लेकिन फिर भी उन्होंने पिता के सम्मान पर आंच नहीं आने दी। यहां तक कह दिया कि आप कहते तो मैं इस्तीफा भी दे देता। मुलायम ने शिवपाल के अपमान के लिए भी अखिलेश की आलोचना की लेकिन यह नहीं कहा कि अखिलेश मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे। अलबत्ते व्यवस्था दी कि अखिलेश सरकार चलाएं और शिवपाल संगठन लेकिन अखिलेश इस जिद पर अड़े हैं कि प्रत्याशियों का चयन उनकी सहमति से होना चाहिए। इस पर मुलायम की चुप्पी के राजनीतिक हलकों में अलग सियासी निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। और जब दोनों पक्ष गले मिल चुके थे तो अचानक मुलायम सिंह यादव ने आशु मलिक की उस चिट्ठी का जिक्र क्यों किया जिसमें अखिलेश को औरंगजेब और मुस्लिम विरोधी कहा गया था जबकि मुलायम इस बात को भी जानते थे कि शांति सम्मेलन से पूर्व ही अखिलेश और शिवपाल समर्थकों में सड़क युद्ध हो चुका है। इसके बाद भी उन्होंने वाक्युद्ध की जमीन क्यों तैयार की, यह बात समझ से जरा परे की चीज है। सपा के लखनऊ स्थित मुख्यालय पर पार्टी नेताओं की बैठक में पार्टी के राष्ट्रीय प्रमुख मुलायम सिंह यादव, यूपी के सीएम अखिलेश यादव और सपा के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव के बीच सार्वजनिक मंच पर नोकझोंक हुई। अखिलेश और शिवपाल के बीच धक्कामुक्की भी हो गई। बैठक से पहले मुलायम सिंह यादव गुस्से में चले गए। उनके पीछे सीएम अखिलेश भी वहां से चले गए। और शिवपाल यादव पार्टी दफ्तर स्थित अपने कमरे में चले गए। थोड़ी देर बाद अखिलेश और शिवपाल मुलायम के आवास पर उनसे मिलने गए। वहीं मुलायम से मिलने के बाद शिवपाल ने 10 और युवा नेताओं को पार्टी से निकाल दिया। ये सभी नेता अखिलेश के करीबी हैं। मुख्यमंत्री के विरोध में चिट्ठी लिखने वाले आशु मलिक ने तो विधायक पवन पांडेय पर उन्हें चांटा मारने का भी आरोप भी लगाया। हालांकि अखिलेश समर्थकों ने इससे इनकार किया है। रोना-धोना, धक्का-मुक्की, चांटा और निष्कासन इसके अलावा तो इस शांति सम्मेलन की कोई खास उपलब्धि नहीं रही।
इसमें संदेह नहीं कि देश के सबसे बड़े सियासी परिवार की रार अब दरार बन चुकी है। उसे भर पाना शायद सपा के मुखिया मुलायम सिंह के वश की बात नहीं रही। यह अलग बात है कि परिवार की तकरार को दूर करने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयास किए हैं। समाजवादियों की अब तक की सबसे बड़ी बैठक में भी उनका प्रयास यही जताने और दिखाने का था कि शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच कोई मतभेद नहीं है। भाई और बेटे को गले मिलवाकर अपना यह उद्देश्य उन्होंने पूरा भी कर दिया था और इसके लिए उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के सूत्र वाक्य ‘सौ खून माफ’ का भी जिक्र किया। दोनों ही को यह नसीहत भी दी कि जो आलोचनाओं को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखता और बड़ा नहीं सोचता, वह बड़ा नेता नहीं हो सकता। उन्होंने इस अवसर पर भी भाई शिवपाल का ही साथ दिया। अखिलेश यादव की कार्यशैली पर अंगुली उठाई लेकिन शिवपाल यादव को जनता का नेता करार दिया। यह भी कह दिया कि वे शिवपाल और अमर सिंह को छोड़ नहीं सकते। अमर सिंह के उन पर अहसान हैं। उन्होंने मुझे जेल जाने से बचाया है। वर्ष 2003 में सपा सरकार बनवाने में मदद की है जो लोग अमर सिंह को दलाल कह रहे हैं, वे सबसे बड़े दलाल हैं। यह जानते हुए भी कि अमर सिंह से अखिलेश खुश नहीं हैं , उन्होंने अगर अमर सिंह का साथ दिया तो केवल इसलिए कि इस समय अगर अमर सिंह को छेड़ा गया तो शिवपाल टूट जाएंगे। पहले ही वे सरकार से बर्खास्तगी को लेकर आहत हैं। अमर सिंह पर कार्रवाई वे झेल नहीं पाएंगे। दूसरा पक्ष यह है कि मुलायम सिंह यादव अपनों पर खुलकर विश्वास करते हैं और तब तक उनका बुरा नहीं करते जब तक कि पानी सिर से ऊपर न चला जाए। वे परिवार में कलह की वजह भी जानते हैं और शायद यही वजह है कि जब अखिलेश ने यह कहा कि समाजवादी पार्टी में उनका कुछ नहीं है, सब नेताजी का ही है तो मुलायम सिंह यादव ने यहां तक कह दिया कि अखिलेश ही मेरे वारिस हैं। नेताजी का यह अभिकथन निश्चत रूप से उनकी पत्नी साधना गुप्ता यादव को रास नहीं आया होगा। सपा से निष्कासित विधान परिषद सदस्य उदयवीर सिंह की चिट्ठी तो यही जाहिर करती है कि इस विवाद के मूल में साधना गुप्ता यादव हैं। शिवपाल यादव तो उनके राजनीतिक चेहरे हैं। उनका स्वार्थ अपने बेटे प्रतीक और उनकी पत्नी को राजनीति के शीर्ष पर स्थापित करने का हो सकता है लेकिन सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट से यह जाहिर हुआ है कि प्रतीक यादव मुलायम सिंह के दूसरे विवाह से पहले ही साधना गुप्ता के पहले पति से उत्पन्न हैं, इसलिए वे वैधानिक तौर पर मुलायम सिंह यादव के वारिस हो ही नहीं सकते। मुलायम सिंह यादव जैसा मंझा हुआ राजनीतिज्ञ अपने दो बेटों में से केवल एक को ही अपना वारिस कहने की भूल तो नहीं ही कर सकता। सवाल यह उठता है कि अगर वे वाकई अखिलेश यादव को अपना वारिस मानते हैं तो उनके साथ बेगानों जैसा सलूक क्यों कर रहे हैं? क्या वे किसी दबाव में हैं? उन्होंने पार्टी में दो नंबर की हैसियत रखने वाले थिंक टैंक राम गोपाल यादव को पार्टी से बाहर का रास्ता क्यों दिखाया, यह जानते हुए भी कि वे अखिलेश के समर्थक हैं और किसी भी रूप में अखिलेश का बुरा नहीं चाहते। क्या यह सब अमर सिंह और शिवपाल यादव के दबाव में हुआ। क्या यह समझा जाना चाहिए कि अखिलेश यादव के समर्थकों पर ही समाजवादी पार्टी में कार्रवाई का डंडा चलेगा तो क्या अखिलेश यादव का समर्थन करने और अमर सिंह की मुखालफत के जुर्म में आजम खान को भी बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा। अखिलेश के समर्थन में चिट्ठी लिखने की सजा तो रामगोपाल भी भुगत चुके और उदयवीर भी भुगत चुके। इन लोगों को बगावती मान लिया गया लेकिन शिवपाल के समर्थन में अखिलेश विरोधी खत लिखने वाले आशु मलिक का बाल बांका भी न होना आखिर क्या साबित करता है? आजम खान की जगह क्या आशु मलिक सपा में मुस्लिम चेहरा बनने जा रहे हैं या मुलायम की नजर मुख्तार अंसारी पर है। जिस तरह उन्होंने मुख्तार अंसारी के परिवार को सम्मानित कहा है और उनका पारिवारिक संबंध उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी से जोड़ा है, उससे तो नहीं लगता कि आजम खान सपा में लंबे दिनों के मेहमान हैं। अमर सिंह और आजम खान के बीच वैसे भी छत्तीस के रिश्ते हैं और हाल फिलहाल तो इसमें किसी तरह की कोई तब्दीली होती नजर नहीं आती। ऐसे में सपा में उनकी रहतब हो पाएगी, ऐसा तो नहीं लगता। अमर सिंह की आलोचना को लेकर वे शिवपाल की भी आंखों की किरकिरी बन चुके हैं, ऐसे में उनके खिलाफ जाल नहीं बिछेंगे, यह कैसे कहा जा सकता है? आपस में धक्का-मुक्की करने वाले चाचा भतीजा मुलायम के दांतों में दर्द होते ही एक हो गगए। एक ही गाड़ी से मुलायम के आवास पहुंचे। इस नूराकुश्ती का अर्थ निकालना बहुत आसान नहीं है। यह स्ट्रेटजी मीडिया स्टंट है या वाकई अब बात हद से ज्यादा बिगड़ गई है। मुलायम सिंह की अगली रणनीति क्या होगी, यह तो वही जानें लेकिन वे जो भी अगली रणनीति बनाएंगे उससे अखिलेश और सपा दोनों ही को कोई खास फायदा नहीं होना है। वारिस का कमजोर होना दरअसल मुलायम का कमजोर होना है । अखिलेश युवा चेहरा हैं, उन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत हैं। शिवपाल की मानकर नेताजी अगर उत्तर प्रदेश की कमान संभल भी लें तो उससे भी न उनका घर बचेगा और न ही पार्टी। नेताजी को कड़ा तो होना ही होगा मगर सोच-समझकर।