
गायत्री प्रजापति पर कार्यवाही तो दरअसल उसी वक्त की जानी चाहिए थी जब उनका नाम बीपीएल कार्ड बनवाने को लेकर विवादों की जद में आया था। एक आरटीआई कार्यकर्ता ने उनके पास 950 करोड़ की संपत्ति होने का खुलासा किया था। गायत्री प्रजापति की बर्खास्तगी के पीछे इलाहाबाद हाई कोर्ट का वह आदेश है जिसमें प्रदेश में अवैध खनन को लेकर सीबीआई जांच के आदेश दिए गए हैं। हाई कोर्ट ने दरअसल 20 जुलाई को उक्त आदेश दिया था। सरकार की दलीलों को खारिज करते हुए अवैध खनन मामले की जांच केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो से कराने का आदेश दिया था। सीबीआई जांच से बचने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हाई कोर्ट की रिवीजन बेंच में अपील भी शुक्रवार को खारिज हो चुकी है। प्रदेश में खनन व्यापार अरबों-खरबों रुपये का है और सरकार अवैध खनन मामलों से वाकिफ न रही हो, यह कैसे कहा जा सकता है? इस पूरे प्रकरण की जांच पूर्व लोकायुक्त आरएन मल्होत्रा भी कर चुके हैं। ऐसे में समझा जा रहा है कि सीबीआई के फंदे से बचने की गरज से ही उक्त बड़ा निर्णय लिया गया है। गायत्री प्रजापति पहले भी विवादों में रहे हैं। करोड़पति होने के बजाए गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों के लिए बनी कन्या विद्याधन योजना का लाभ अपनी बेटी को दिलाने के मामले में उनके खिलाफ लोकायुक्त में शिकायत भी हुई थी। राजकिशोर सिंह पर भी भ्रष्टाचार और बस्ती में जमीन कब्जा करने के आरोप लगे थे। पंचायती राज के अलावा उनके पास लघु सिंचाई और पशुधन विभाग भी थे। कहीं न कहीं वे भी खनन कारोबार से जुड़े बताए जा रहे हैं।
अमेठी के परसांवा गांव में 2002 में गायत्री प्रसाद प्रजापति को बीपीएल कार्ड जारी हुआ। इसके बाद 2012 में जब वह विधायक बने तो उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर वाला एपीएल कार्ड मिला। 2012 में सपा के टिकट पर अमेठी से विधायकी का चुनाव लड़ने वाले गायत्री ने तब 1.81 करोड़ की संपत्ति घोषित की थी। मंत्री बनने के दो साल के भीतर ही गायत्री प्रजापति की संपत्ति करीब 942.5 करोड़ रुपये हो गई। इन दागी चेहरों पर पहले ही कार्रवाई होनी चाहिए थी लेकिन जब जागे तभी सबेरा। दागी मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई कर मुख्यमंत्री ने यह तो जता ही दिया है कि सपा में उनकी ही चलती है। सूबे में कई मुख्यमंत्रियों संबंधी विपक्ष के आरोपों से आहत अखिलेश का यह कदम आईना भी है। हालांकि यह फैसला बहुत देर से आया है। फिर भी देर आयद, दुरुस्त आयद। इसमें शक नहीं कि उत्तर प्रदेश की सियासत में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पहले मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में 15 मंत्रियों को बर्खास्त किया। इसके पहले भी मुख्यमंत्री अपने मातहत मंत्रियों पर कार्रवाई करते रहे हैं लेकिन कभी यह प्रदर्शित नहीं होने दिया गया कि उन्हें हटाया गया बल्कि प्रचारित यही किया गया कि उन्होंने खुद मंत्री पद से त्यागपत्र दिया है।
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने वर्ष 2013 में एक महिला आइएएस पर विवादित टिप्पणी करने वाले खादी ग्रामोद्योग मंत्री राजाराम पांडेय को उन्होंने बर्खास्त कर दिया। मुख्यमंत्री द्वारा किसी मंत्री पर की जाने वाली यह पहली शिकायत थी। वर्ष 2014 में मंत्री मनोज पारस और कृषि मंत्री आनन्द सिंह बर्खास्त किए गए। अवैध खनन मामले में एक आईपीएस अधिकारी के साथ अभद्र व्यवहार करने के मामले में उन्होंने अपने करीबी पवन पांडेय को भी नहीं बख्शा। स्टांप तथा न्याय शुल्क पंजीयन व नागरिक सुरक्षा मंत्री महेन्द्र अरिदमन सिंह, पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री अंबिका सिंह, वस्त्र उद्योग मंत्री शिवकुमार बेरिया, खेल मंत्री नारद राय, प्राविधिक शिक्षा मंत्री शिवाकांत ओझा, प्राविधिक शिक्षा राज्य मंत्री आलोक शाक्य और बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री योगेश प्रताप के अलावा स्वतंत्र प्रभार के लघु उद्योग मंत्री भगवत शरण गंगवार को भी मुख्यमंत्री के स्तर पर बर्खास्त कर दिए गए। यह अलग बात है कि कई लोग फिर मौका पा गए। हाल में उन्होंने मंत्री मनोज पांडेय को भी सत्ता से बाहर की राह दिखा दी थी। माध्यमिक शिक्षा मंत्री बलराम यादव को बर्खास्तगी के कुछ दिनों बाद दोबारा शपथ दिलाकर वही विभाग लौटाना पड़ा।
मुख्यमंत्री ने कई मंत्रियों से इस्तीफे भी लिए। कुंडा में सीओ जियाउल हक की हत्या के बाद रघुराज प्रताप सिंह या फिर गोंडा में अधिकारियों से अभद्र व्यवहार पर विनोद कुमार सिंह उर्फ पंडित सिंह का इस्तीफा इसकी बानगी है। यह अलग बात है कि बाद में दोनों की मंत्रिमंडल में वापसी हो गयी। आरोप तो मुस्लिम मंत्रियों पर भी लगे लेकिन उन पर अखिलेश यादव जरूरत से अधिक मेहरबान रहे। आजम खां का तो वे हर मोर्चे पर बचाव ही करते नजर आए और इसके लिए मीडिया को दोषी ठहराने में भी वे बाज नहीं आए। अब देखना यह होगा कि मुख्यमंत्री की मौजूदा कार्रवाई कितनी टिकाऊ होती है। गायत्री प्रजापति और राजकिशोर सिंह की मंत्री पद पर वापसी हो पाएगी या नहीं लेकिन जिस तरह सपा प्रमुख ने अनभिज्ञता जताई है। उससे तो यही लगता है कि भले ही यह फैसला परिस्थतिजन्य कारणों से हुआ हो लेकिन अगर दबाव पड़ा तो उनकी पावसी भी संभव है। हालांकि जिस तरह की सीबीआई रिपोर्ट उच्च न्यायालय को सौंपी गई है, उससे तो नहीं लगता कि उन पर मेहरबानी बरतकर सरकार अपना गला फंसाना पसंद करेगी। जनता के बीच जाना है तो साफ-सुथरा दिखना भी होगा। मौजूदा कवायद इसी कड़ी का एक उपक्रम भर है। काश, अब भी चेता जा पाता।
—————- सियाराम पांडेय ‘शांत’