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अंबेडकर के बहाने धर्म परिवर्तन की राजनीति

download (10)लगता है कि डॉ. भीमराव अंबेडकर को समझने में इस देश से भूल हो रही है। उनके विचारों और सिद्धांतों को सतही तौर पर लिया जा रहा है। उनके विचारों के तत्वदर्शन में जाने का किसी के पास वक्त नहीं है। अंबेडकर को मानने का मतलब यह तो नहीं है कि हर वह काम किया जाए जो वे किया करते थे। पहली बात तो अंबेडकर व्यक्ति नहीं, विचार थे। विचारों को ग्रहण करने तथा व्यक्तिश: तरजीह देने का तरीका अलग-अलग होता है लेकिन अंबेडकर को भगवान से भी अधिक मानने वाला दलित समाज अंबेडकर को कितना समझ पाया है तो अंबेडकर के विचारों की संवाहक कितनी पुस्तकें दलितों के घर में हैं। उन्होंने अंबेडकर को कितना पढ़ा है। जब पढ़ेंगे ही नहीं तो जानेंगे कैसे? दलितों की राजनीति करने वाले नेताओं का मस्तिष्क भी इस मामले में बहुत उर्वर नहीं है।
उन्होंने अंबेडकर को पढ़ा तो है लेकिन उतना ही, जितने से उनका काम चल सके। कामचलाऊ ज्ञान विवेचना और विश्लेषण का अधिकारी नहीं हुआ करता। अंबेडकर को मानने का यह मतलब तो नहीं कि उन्होंने जो धर्म अपनाया, उसे सभी दलित अपनाएं। धर्म परिवर्तन किए बिना भी तो उनके विचारों को जीवन में स्थान दिया जा सकता है। एक केद्रीय राज्य मंत्री के मुंह से इस तरह की बातें अच्छी नहीं लगती। संघ और भाजपा धर्म परिवर्तन के खिलाफ है और उन्हीं के मंत्रिमंडल का एक व्यक्तित्व धर्म परिवर्तन का हिमायती। यह बात हजम नहीं होती। रामदास अठावले मायावती ही नहीं, केंद्र के प्रति भी मुखर हैं। वे गोहत्या के तो विरोधी हैं लेकिन गौहत्या करने वाले मानवों के समर्थक। उनकी यह बात संघ परिवार और भाजपा आलाकमान को भी नागवार गुजर सकती है लेकिन अठावले सरकार में नए-नए आए हैं तो यहां की रीति-नीति समझने में उन्हें थोड़ा वक्त तो लगेगा ही। मायावती ने उन्हें भाजपा का गुलाम मतलब दास कहा है और दास अपना मुंह नहीं खोल सकता। दास को मुंह खोलने का क्या कभी अधिकार है, उसका तो बस परतंत्र रहने को हुआ अवतार है। गुलाम कहना सबसे बड़ी गाली है और इस तरह के अपशब्दों के  प्रयोग तो अंबेडकर दर्शन के विषय हैं ही नहीं।  मौजूदा दौर में अंबेडकर के नाम पर राजनीतिक घमासान तेज हो गया है।
देश के दो बड़े दलित नेता आमने-सामने हैं। यह जुबानी जंग किस हद तक जाएगी और इसका किसे क्या फायदा मिलेगा, यह तो अगले साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ही स्पष्ट हो सकेगा लेकिन इन सबसे दलित राजनीति की पोल-पट्टी अवश्य खुलेगी। महाराष्ट्र के बड़े दलित नेता और केंद्रीय राज्य मंत्री रामदास अठावले ने बसपा प्रमुख मायावती पर आरोप लगाया है कि मायावती तो बस उनके नाम पर राजनीति करती हैं,अंबेडकर के विचारों और सिद्धांतों को नहीं मानतीं। और अगर ऐसा होता तो वे अब तक हिंदू न रहतीं। कब का बौद्ध धर्म अपना चुकी होतीं। इतनी चुभती हुई बात कही जाए और मायावती चुप रहें, ऐसा मुमकिन ही नहीं है। उधार तो वे अपने ऊपर रखती ही नहीं। व्यवहार का नकद धर्म अपनाते हुए उन्होंने तुरंत अठावले का वैचारिक उधार लौटाया। यह मायावती का नहले पर दहला था। वे अपने विरोधियों को बख्शती हरगिज नहीं। जाति का लिहाज करना तो उन्होंने सीखा ही नहीं। दलितों की जुबानी जंग के नतीजे से तो वे परिचित हैं लेकिन जब सवाल उछला है तो जवाब देना तो बनता ही है न। अंबेडकर दलितों के बड़े नेता थे। दलितों के उत्थान में उनका राजनीतिक अवदान अहम है। अंबेडकर को नेपथ्य में डालने का मतलब होगा दलित राजनीति को अंधे कुएं में धकेल आना। अंबेडकर का दर्शन ही दरअसल दलित राजनीति का दर्शन है। ऐसे में कोई भी दलित नेता अंबेडकर के सिद्धांतों  से तौबा कर सकता है और मायावती तो खुद को दलितों की देवी तक कह चुकी हैं। यह अलग बात है कि अंबेडकर ने कभी खुद को दलितों का देवता नहीं कहा। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व ने उन्हें दलितों की नजर में भगवान से भी बड़ा बना दिया। कोई ऐसा गांव नहीं जहां दलितों ने डॉ. भीमराव अंबेडकर की प्रतिमा न स्थापित कर रखी हो। क्या मायावती और अठावले की भी महाराष्ट्र या उत्तर प्रदेश के गांवों में कोई प्रतिमा लगी है।
दलितों की इस तथाकथित देवी ने तो लखनऊ में जगह-जगह अपनी प्रतिमा खुद लगवा ली। उन्हें विश्वास ही नहीं था कि उनके न रहने पर लोग उनकी प्रतिमाएं लगाएंगे भी या नहीं।  बसपा से निकले लगभग सभी नेताओं ने उन्हें दौलत की बेटी कहा है और तब भी उन्होंने यही कहा था कि उनके माता-पिता ने उनका नाम माया रखा है। माया नाम लक्ष्मी का है। धन का है। कहते हैं कि चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता और आधुनिक दौर में मायावती के साथ भी यही बात है। अब वे आरोप झेलने में सिद्धहस्त हो चुकी हैं।अठावले पर पलटवार करते हुए उन्होंने कहा है कि वे  भाजपा की गुलामी कर रहे हैं।  बाबा साहब के आंदोलन  को आघात पहुंचा रहे हैं। दलित एकता को तोड़ रहे हैं। उन्होंने करोड़ों दलितों के साथ बोद्ध धर्म अपनाने की बात कही लेकिन इसके लिए दलित समाज के जागरूक होने की भी बात कही। मायावती ने कहा कि बाबा साहब ने भी बौद्ध धर्म अपनाने में जल्दबाजी नहीं की थी और जीवन के आखिरी वक्त में बौद्ध धर्म अपनाया था। अठावले को  नसीहत देते हुए उन्होंने कहा कि भाजपा  के बहकावे में आकर बौद्ध धर्म अपनाने के संबंध में उन्हें कोई बात नहीं कहनी चाहिए। अंबेडकर ने जीवन के अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म अपनाया था तो क्या मायावती भी ऐसा ही करेंगी। वे कांशीराम के सपनों को साकार करना चाहती हैं। कांशीराम बौद्ध धर्म अपनाना चाहते थे, इसलिए वे ऐसा करेंगी। सवाल तो यह है कि वे क्या चाहती हैं। कांशीराम को आखिरकार वे कब तक अपनी ढाल बनाती रहेंगी। अंबेडकर इस देश के अधिकांश दलितों के हृदय पर राज करते थे लेकिन उन्होंने तो कभी सामूहिक धर्म परिवर्तन नहीं किया। बौद्ध धर्म अपनाया भी तो अकेले। अगर मायावती को अठावले की बातें बुरी लगती हैं कि वे अंबेडकर के सिद्धांतों में यकीन नहीं करतीें तो इसमें गलत क्या है। अगर वे अंबेडकर को मानतीं तो उनका जवाब होता कि वे ऐसा जरूर करेंगी लेकिन अकेले।
धर्म परिवर्तन की धौंस देकर हिंदुओं को डराना भी उचित नहीं है। यह प्रयोग पहले भी होते रहे हैं लेकिन उदार भारत में  इस तरह के विचारों को कभी अहमियत नहीं मिली। वैसे भी इन दोनों बड़े दलित नेताओं को यह बता देना मुनासिब होगा कि बौद्ध धर्म कोई धर्म नहीं है। इस धरती पर एक ही धर्म है और वह सनातन धर्म है। जो चिर नूतन रहता है। कभी पुराना पड़ता नहीं, वह सनातन है। गौतम बुद्ध कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन के पुत्र थे। उन्होंने जीवन के अष्टांग मार्ग का सिद्धांत दिया। सम्यक दृष्टि,सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका,सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। इसमें जीवन का हर पक्ष निहित है। उन्होंने इन सिद्धांतों पर अमल करने की बात कही। वे जानते थे कि इन विचारों पर चलने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो जाएगा। अंबेडकर ने बुद्ध को पढ़ा ही नहीं, उसे अपने जीवन में उतारने की भी कोशिश की थी। अंबेडकर होने का अर्थ है बुद्ध होना, बोध को प्राप्त करना और जुबानी जंग से बोध की प्राप्ति नहीं होती। इसके लिए मन और आत्मा की गहराइयों में जाना होता है। इसके बिना बुद्धत्व की बात बनती नहीं है। किसी भी महापुरुष के विचारों का अनुगमन धर्मभीरुता नहीं है। मायावती सामाजिक जागृति की बात करती हैं लेकिन समाज को जागृत करने की इच्छा रखने वाले को खुद भी जागृत होना पड़ता है। अंधानुकरण सामाजिक जागरण कभी नहीं हो सकता। मायावती और अठावले दोनों ही बड़े नेता हैं। उन्हें परस्पर दोषारोपण की बजाए दलितों के समग्र हित पर ध्यान देना चाहिए। दलितों का हित क्षिद्रान्वेषण से नहीं, उनके लिए कुछ खास करने से होगा।

                                                                                                                                       —-     सियाराम पांडेय ‘शांत’

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