देहरादून: यकीन कर पाना मुश्किल है कि करीब 3553 मीटर की ऊंचाई वाले केदारनाथ धाम में हजारों साल पहले भीषण गर्मी पड़ती थी। यदि ट्रेंड देखें तो बारिश होने पर यहां का तापमान बड़े आराम से माइनस पांच डिग्री सेल्सियस को पार कर जाता है। हालांकि, वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान का ताजा शोध बताता है कि करीब 8000 साल पहले न सिर्फ यहां भीषण गर्मी पड़ती थी, बल्कि ग्लेशियर भी तेजी से पिघलने लगे थे। इसके चलते करीब 4000 साल पहले यह क्षेत्र दलदली हो गया था और वनस्पतियां उग आईं थी।
इसके कई हजार साल बाद इस क्षेत्र में सभ्यता का भी विकास हुआ और चावल समेत सूरजमुखी की खेती की जाने लगी। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के गोल्डन जुबली समारोह में वाडिया संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव ने बताया कि आज केदारनाथ के जिस कोल्ड डेजर्ट में दूर-दूर तक वनस्पति नजर नहीं आती, वहां वास्तव में वनस्पति उगा करती थी। डॉ. श्रीवास्तव के अनुसार केदारनाथ मंदिर के उत्तरी क्षेत्र में करीब एक मीटर ऊंचा जैविक मृदा का टीला पाया गया।
इसमें विभिन्न दलदली वनस्पतियों के परागकणों के अंशों की पहचान की गई। पोलेंड में इसकी कार्बन-14 डेटिंग कराने पर पता चला कि जैविक मृदा व इसमें वनस्पति उगने की अवधि आज से करीब 4000 साल पुरानी है। जैविक मृदा में वाकई तब वनस्पति उगा करती थी, इसे और पुष्ट करने के लिए मिट्टी में माइक्रो न्यूट्रिएंट्स नाइट्रोजन की उपस्थित का पता लगाने के लिए इनके आइसोटोप्स (समस्थानिक) का अध्ययन किया गया। नाइट्रोजन की उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि इसमें वनस्पति उगती थी और अध्ययन में इस बात की भी पुष्टि हो गई।
1500 साल तक रहा गर्म
वाडिया संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव ने बताया कि केदारनाथ क्षेत्र में 8000 साल से लेकर 1500 साल पहले तक बेहद गर्म तापमान था। सैकड़ों व हजार वर्ष के ऐसे चार गर्म फेज केदारनाथ में थे।
900 साल पुराने मिट्टी के बर्तन मिले
अध्ययन में वाडिया के वैज्ञानिकों को करीब 900 साल पुराने मिट्टी के बर्तन भी मिले। साथ ही चावल व सूरजमुखी की खेती किए जाने के अंश भी मिले।
अटलांटिक सागर का प्रभाव संभव
डॉ. प्रदीप श्रीवास्तव का मानना है कि अटलांटिक सागर के अल-नीनो (समुद्र से उठने वाली गर्म हवाओं के चलते तापमान में बढ़ोतरी) का प्रभाव अधिक होने के चलते तब केदारनाथ का मौसम बेहद गर्म था। इससे यह भी पता चलता है कि अटलांटिक सागर के प्रभाव का हिमालयी क्षेत्रों की जलवायु पर भी असर पड़ता है। हालांकि इस दिशा में और शोध किए जाने की जरूरत है।