‘कंक्रीट के जंगल’ युवाकवि राकेशधर द्विवेदी का प्रथम काव्य पुष्प है। इसमें भावनाओं का प्रवाह ही नहीं, सामाजिक विसंगतियों,विद्रूपताओं के खिलाफ अकुलाहट और छटपटाहट भी है। संग्रह की सभी 67 कविताएं समाज को अपना संदेश देने में सफल रही हैं। इसमें सिर्फ शब्द गुंफन ही नहीं, भाव चिंतन और अभिकथन का आलोडऩ भी है। जो जैसा है, उसी उसी तरह सहजता से कह देने की सामथ्र्य रखने वाली इन कविताओं में कोई भी काटने-बराने लायक नहीं हैं।
सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक विसंगतियों पर अगर कवि की बारीक नजर है तो उनके समाधान की प्रभावी आकुलता भी है। नगरों के अंधाधुंध बाजारीकरण से भी कवि चिंताग्रस्त नजर आता है। पर्यावरण को होने वाले नुकसान भी इस काव्यसंग्रह में चिंता के विषय बने हैं। यूं तो राकेशधर ने अपना यह काव्य संग्रह अपने बेटे को समर्पित किया है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वे अपने बेटे की उम्मीदों पर बहुत हद तक खरा उतरते नजर आए हैं। उनकी कविताएं इस बात की बानगी हैं कि वे कुछ बड़ा बनकर दिखाने की ओर अग्रसर हैं। प्रथम प्रयास में अगर कोई यह कहता है कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी कविताएं तुम्हारे पास आएंगी तो सहसा विश्वास नहीं होता लेकिन राकेशधर ने पूरे विश्वास के साथ यह बात कही है तो उम्मीद की जा सकती है कि वे कुछ ऐसा जरूर करेंगे कि लोकस्मृतियों में बने रहें। उनकी राम वनवास शीर्षक कविता अपनी कहन के लिहाज से जानी जाएगी। इसमें एक नया चिंतन है।
वनवास कोई नहीं जाना चाहता लेकिन राकेशधर का राम फिर वनवास जाने को उद्यत है, यह एक अलहदा किस्म का प्रयोग है। “राम फिर वनवास में जाने को तैयार है। राम आज उदास हैं, राम फिर निराश हैं। अंधेरा क्योंकि घना है, रावण अभी नहीं मरा है।’ यह कविता मुझे बनारस के एक स्वनामधन्य कवि के विचारलोक तक पहुंचा देती है।’ सोने के हिरणों के पीछे भाग रहा है मन। जाने कितने राम बचे हम, कितने हम रावण।’ राम ने एक रावण को मारा था लेकिन अब तो घर-घर रावण हैं। इतने राम कहां से आएंगे। राकेशधर द्विवेदी की चिंता इस बात को लेकर भी है कि आज के रावण विद्वान नहीं हैं। अब हनुमान भी नहीं है।’ न रावण रहा पंडित,न रहे हनुमान। इस बात को लेकर हैं राम परेशान। आर्यावर्त की समस्या कब मिटेगी।’ ‘ गौरैया के हक में’ और ‘जटायु तुम कहां हो’ शीर्ष कविताएं विलुप्त होते पक्षियों के प्रति कवि की चिंता का सबब हैं। कंक्रीट के जंगल शीर्षक कविता में भौतिकता के ताप की अनुभूति कराने में कवि बहुत हद तक सफल रहा है। ‘ मैकडावल की बोतल में मनी प्लांट है मुस्कुरा रहा। पास में खड़ा हुआ नीम का पेड़ काटा जा रहा।’ यह सीधे तौर पर पेड़-पौधों की सुरक्षा-संरक्षा संबंधी मानवीय सोच पर करारा आक्षेप है। उसके दृष्टिबोध पर प्रश्रचिह्न है। मधुर मिलन कैसे होगा रचना शृंगार रस की अभिव्यक्ति तो करती है लेकिन निराश भी करती है। इसकी वजह यह भी है कि पूर्व में ही इस विषय पर बहुत मजबूत कविता लिखी जा चुकी है फिर भी एक नवोदित रचानकार ने अगर अपने तरीके से कुछ कहने की कोशिश की है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। महिला सशक्तीकरण,विडंबना, समाजवाद,चांद फिर मुस्कराया संग्रह की अच्छी रचनाएं हैं। अबकी बादल यूं बरसते रहे कविता में तुकबंदी की त्रुटियां भी चरम पर हैं। मसलन:’ रात भर चांद आज है रोया बहुत,सुबह धरती यह कहानी बताने लगी।
चांदनी कब से उससे दूर थी, इस हकीकत की बयानी बताने लगी।’ संग्रह में राष्ट्रधर्म अपनाने पर अगर कवि का जोर है तो ‘मेरी गजल हैं आप’ शीर्षक जैसी दिल को छू जाने वाली कविताएं भी हैं। ‘पापा जल्दी आ जाना’ इस संग्रह की मेरी दृष्टि में सर्वोत्कृष्ट रचना है।’ पापा जल्दी आ जाना, चाहे वीडियो गेम न लाना’ इस बात का इजहार है कि पिता-पुत्र के बीच प्रेम की पराकाष्ठा क्या है। पिता का जल्दी घर लौटना बच्चे के लिए कितना मायने रखता है।’ हम बच्चे हिंदुस्तान के, कुछ ऐसा कर दिखलाएंगे। सारी दुनिया में प्यारा तिरंगा भारतवर्ष का लहराएंगे’ भावात्मक दृष्टि से बेहद स्तरीय रचना है। वर्तमान साहित्य की दुर्दशा पर भी एक नजर डालने का कवि प्रयास स्तुत्य है। ‘कवि नजरबंद है, लेखनी निराश है। भारत धरा की जनता अब तो उदास है।’ कहन का यह स्वरूप बेहद अनूठा है। ईमानदार, अंखियन देखी, रंगोत्सव,नींव की ईंट,शमिंदा हैं हम शीर्षक कविता भाषा, भाव और शिल्प की कसौटी पर खरा उतरती है। मजहबी सौहार्द को अभिव्यक्त करती कविता ‘दंगाइयों से कह दो’ विशेषतया दृष्टव्य है-‘ मैं हिंदू था, वह मुसलमान थी। हम दोनों के बीच एक बच्चा था जिसका नाम हिंदुस्तान था।’ आज हड़ताल है और पेशावर के बच्चों की याद में दिल झकझोरने वाली रचनाएं हैं। गांधी के तीन बंदरों को भी कवि ने अपने अंदाज में निरूपित करने का प्रयास किया है। जीवन बहुरंगी स्वरूप में इस काव्यकृति में मुखरित हुआ है, यह तो कहा ही जा सकता है। कुल मिलाकर काव्य संग्रह बेहतरीन और उम्दा बन पड़ा है। हिन्द युग्म प्रकाशन द्वारा मुद्रित यह संग्रह आद्यन्त सुंदर और चित्ताकर्षक है। राकेशधर द्विेवेदी का निर्विवाद रूप से यह प्रथम प्रयास है लेकिन उनका श्रम सार्थक हुआ है, इसमें शायद ही किसी को संदेह हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि शीघ्र ही उनकी अन्य कृति भी पढऩे को मिलेगी।
– शिखा शुक्ला